मैया तू भोली है नहीं जानती कुछ इसकी करतूत।
कैसा धूर्तशिरोमणि है यह तेरा सुघड़ साँवरा पूत।
ननद जा रही थी मेरी वह प्रातः ही अपनी ससुराल।
बना रही थी उसको देने शकुन बटेरि मैं ततकाल।
लगा रही थी उसके महेंदी मेरी देवरानी थी व्यस्त।
छत पर थी वह इधर साँवरा लगा रहा था बाहर गश्त।
देखा घर सूना है आया चुपके से घर किया प्रवेश।
पक्का चोर न पैरों की आहट भी होने दी कुछ लेश।
एक एक कर बुला लिया फिर अंदर खोल दधि भंडार।
घुसे सभी धीरे धीरे कर लिए बंद फिर सभी द्वार।
नज़र गई मेरी दिखे कपाट मुझको दधि घर के बंद।
मैं निसचिंत रही ये घर में करने लगे काम स्वछन्द।
खाली थे कर दिए तुरत मधु दधि माखन के सारे माट।
पता नहि ये कितने थे सब कैसे रचा अनोखा ठाट।
खा पीकर कुछ मटके फोड़े होने दी न ज़रा आवाज़।
धीरे से पट खोल सभी ये भाग निकल मनोहर साज।
देखा भाग रहे मैं दौड़ी झट जा पहुँची घर के द्वार।
तब तक दूर निकल यह लगा चिड़ाने मुझको दे फटकार।
दिखा दिखाकर मुझे अंगूठा हंसा विचित्र हँसी यह चोर।
उड़ा रोष सब रही देखती मैं अपलक हँस मुख की ओर।
गई भूल मैं इसे पकड़ना इसके जादू के वश हो।
तबतक सब चल दिए नाचते हँसते करते हो हो हो
जय श्रीकृष्ण
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