सन्तवाणी
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानंदजी महाराज
असत् के संगका त्याग है बड़ी कड़वी घूँट ।
अहम् के नाशकी तैयारी है । फाँसीकी सजा है ।
इसका प्रश्न सामने आते ही अहम् से आवाज उठती है‒
“रूप, गुण, ज्ञान, विज्ञान एवं ललित कलाओंसे सुसज्जित व्यक्तित्व को लेकर जगत् में विचरने का जो रस है क्या उसे छोड दूँ ? नहीं, नहीं, यह नहीं हो सकता ।
जब यह सब छिन जाएगा तब देखा जाएगा ।
अभी भी प्रतिपल छीज रहा है, फिर भी रसकी अन्तिम बूँद जबतक अवशेष रहेगी, तबतक इसे न छोडूँगा'' ।
परन्तु उधर काल-चक्र सिर पर नाच रहा है, उस ओरसे भी आँखें बन्द नहीं कर सकते।
तब क्या करें ? तब तीर्थ-यात्रा, ग्रन्थ-पाठ, भजन, कीर्तन, जप, ध्यान आदिके रूपमें साधन आरम्भ कर देते हैं ।
“भोगका नहीं तो संयमका ही सही, गृहस्थीका नहीं तो फकीरीका सही, रागका नहीं तो वैराग्यका ही सही, रस नही छोडूँगा व्यक्तित्वका मोह नही तोडूँगा ।”
साधक की सबसे बड़ी भूल यही है ।
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