॥जय गौर हरि ॥
🌿मीरा चरित ( 74)
क्रमशः से आगे ...........
राजमाता पुँवार जी मीरा को दी जाने वाली यातनाओं की भनक पड़ रही थी ।उन्हें मन हुआ कि एक बार स्वयं जाकर मीरा को मिल कर कहें कि वह पीहर चली जायें ।
मीरा के महल राजमाता पधारी और सस्नेह कहने लगी ," बेटी ! तुम्हें देखती हूँ तो आश्चर्य होता है कि तुम्हें राणाजी ने दुख देने में कोई कसर नहीं रखी , पर एक तुम्हारा ही धैर्य और भक्ति में अटूट विश्वास है जो तुम अपने पथ पर प्रेम निष्ठा से बढ़ती जा रही हो ।बस अपने गिरिधर की सेवा में रहते हुये न तो अपने कष्टों का ही भान है और न ही भूख प्यास का ।"
मीरा ने सासूमाँ को आदर देते हुये कहा ," बहुत बार किसी काम में लगे होने पर मनुष्य को चोट लग जाती है हुकम ! किन्तु मन काम में लगे होने के कारण उस पीड़ा का ज्ञान उसे होता ही नहीं ।बाद में चोट का स्थान देखकर वह विचार करता है कि यह चोट उसे कब और कहाँ लगी , पर स्मरण नहीं आता क्योंकि जब चोट लगी , तब उसका मन पूर्णतः दूसरी ओर लगा था ।इसी प्रकार मन को देह की ओर से हटाकर दूसरी ओर लगा लिया जाय तो देह के साथ क्या हो रहा है , यह हमें तनिक भी ज्ञात नहीं होगा ।"
" पर बीनणी ! राणा जी नित्य ही तुम्हें मारने के लिए प्रयास करते ही रहते है ।किसी दिन सचमुच ही कर गुजरेंगे ।सुन-सुन करके जी जलता है, पर क्या करूँ ? रानी हाँडी जी के अतिरिक्त तो यहाँ हमारी किसी की चलती नहीं ।मैं तो सोचती हूँ कि तुम पीहर चली जाओ" राजमाता ने कहा ।
" हम कहीं भी जाये , कुछ भी करे, अपना प्रारब्ध तो कहीं भी भोगना पड़ेगा हुकम ! दुख देनेवाले को ही पहले दुख सताता है , क्रोध करने वाले को ही पहले क्रोध जलाता है, क्योंकि जितनी पीड़ा वह दूसरे को देना चाहता है, उतनी वही पीड़ा उसे स्वयं को भोगनी पड़ती है " मीरा ने हँसते हुये कहा- अगर मुझ जैसे को कोई पीड़ा दे और मैं उसे स्वीकार भी न करूँ तो ? आप सत्य मानिये , मुझे राणाजी से किसी तरह का रोष नहीं ।आप चिंता न करें ।प्रभु की इच्छा के बिना कोई भी कुछ नहीं कर सकता और प्रभु की प्रसन्नता में मैं प्रसन्न हूँ ।"
" इतना विश्वास , इतना धैर्य तुममें कहाँ से आया बीनणी ?"
" इसमें मेरा कुछ भी नहीं है हुकम ! यह तो संतों की कृपा है ।सत्संग ने ही मुझे सिखाया है कि प्रभु ही जीव के सबसे निकट और घनिष्ट आत्मीय है ।वही सबसे बड़ी सत्ता है ।तब प्रभु के होते भय का स्थान कहाँ ? प्रभु के होते किसी की आवश्यकता कहाँ ?फिर हुकम ! संतों की चरण रज में, उनकी वाणी और कृपा में बहुत शक्ति है हुकम ।"
" तुम सत्य कहती हो बीनणी ! तभी तो तुम इतने दुख झेलकर भी सत्संग नहीं छोड़ती ।पर एक बात मुझे समझ नहीं आती ,भगवान के घर में यह कैसा अंधेर है कि निरपराध मनुष्य तो अन्याय की घानी में पिलते रहते है और अपराधी लोग मौज करते रहते है ।तुम नहीं जानती ,यह हाँडीजी राजनीति में बहुत पटु है ।हमारे लिए क्या इसने कम अंगारे बिछाये सारी उम्र और अब विक्रमादित्य को भी तुम्हें परेशान किए बिना शांति नहीं ।"
"आप मेरी चिन्ता न करें हुकम ! बीती बातों को याद करके दुखी होने में क्या लाभ है ? वे तो चली गई , अब तो लौटेंगी नहीं ।आने वाली भी अपने बस में नहीं , फिर उन्हें सोचकर क्यों चिन्तित होना ? अभी जो समय है , उसका ही उचित ढंग से उपयोग करें दूसरों के दोषों से हमें क्या ? उनका घड़ा भरेगा तो फूट भी जायेगा ।न्याय किसी का सगा नहीं है हुकम ! भगवान सबके साक्षी है ।समय पाकर ही कर्मों की खेती फल देती है ।अपने दुख , अपने ही कर्मों के फल है ।दुख सुख कोई वस्तु नहीं जो हमें कोई दे सके ।सभी अपनी ही कमाई खाते है , दूसरे तो केवल निमित्त है ।" मीरा ने सासूमाँ के आँसू पौंछ , उन्हें ज्ञान की बातें समझा कर सस्नेह विदा किया ।
क्रमशः ...............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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