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सन्तवाणी।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानंदजी महाराज

अनावश्यक कार्य वही है, जिसका सम्बन्ध वर्तमानसे न हो और जिसमें साधककी सामर्थ्य तथा विवेकका समर्थन न हो ।

जिसका सम्बन्ध वर्तमानसे नहीं है और जिसके करनेकी सामर्थ्य साधकमें नहीं है उस कार्यको साधक क्रियात्मक रूप तो दे ही नहीं सकता, केवल उसके करनेका राग-मात्र ही साधकमें अंकित रहता है, जिसका त्याग करना अनिवार्य है।

कभी-कभी असावधानीसे साधक विवेक-विरोधी कर्म कर बैठता है, जिसके करनेसे करनेका राग नाश नहीं होता ।

इस दृष्टिसे विवेक-विरोधी कार्यका त्याग भी अत्यन्त आवश्यक है । विवेक-विरोधी कार्यका त्याग करनेपर आवश्यक कार्यको पूरा करनेकी सामर्थ्य स्वतः प्राप्त होती है ।

प्राकृतिक विधानकी दृष्टिसे मिले हुएका सदुपयोग आवश्यक कार्य है । आवश्यक कार्य पूरा करनेमें असमर्थताकी गन्ध भी नहीं है और अनावश्यक कार्य किसीको करना नहीं है ।

इस दृष्टिसे आवश्यक कार्यके अन्तमें विश्रामका सम्पादन परम आवश्यक है ।

जय श्रीकृष्ण।

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