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साधक मात्र में उत्साह होना चाहिए।

साधक मात्र में उत्साह होना चाहिए!!!

शत्रु कुछ निन्दा करता है तो कैसे ध्यान से लोग सुनते हैं ?
लोभी धन का कैसा निरीक्षण करता है ? ड्राइवर रास्ते का कैसा निरीक्षण करता है ? चाहे स्कूटर ड्राइवर हो चाहे कार ड्राइवर हो, वह सावधानी से सड़क को देखता रहता है। कहीं खड़ा होता है तो स्टीयरिंग घूम जाती है, कहीं बम्प होता है तो ब्रेक लग जाती है, कहीं चढ़ाई होती है तो रेस बढ़ जाती है, ढलान होती है तो रेस कम हो जाती है।

हर सेकेंड ड्राइवर निर्णय लेता रहता है और गन्तव्य स्थान पर गाड़ी सुरक्षित पहुँचा देता है। अगर वह सावधान न रहे तो कहीं टकरा जायगा, खड्डे में गिर जाएगा, जान खतरे में पड़ जाएगी।

ऐसे ही अपने हृदय की वृत्तियों का निरीक्षण करो। खोजो
कि किन कारणों से हमारा पतन होता है ? दिनभर के क्रिया कलापों का निरीक्षण करो, कारण खोज लो और ध्यान स्वाध्याय ,सत्संग या शास्त्रों का सहारा लेके उन हल्के पतन के कारणों को भगा दो।

जीवन में उत्साह होना चाहिए। उत्साह के साथ सदाचार
होना चाहिए। उत्साह के साथ पवित्र विचार होने चाहिए। उत्साह के साथ ऊँचा लक्ष्य होना चाहिए।

दुःशासन, दुर्योधन और रावण में उत्साह तो था लेकिन उनका उत्साह शुद्ध रास्ते पर नहीं था। उनमें दुर्वासनाएँ भरी पड़ी थी। दुर्योधन ने दुष्टता करके कुल का नाश करवाया।

रावण में सीताजी के प्रति दुर्वासना थी। राजपाट सहित
अपना और राक्षस कुल का सत्यानाश किया।

दुःशासन ने भी अपना सत्यानाश किया।

उत्साह तो उन लोगों में था, चपलता थी, कुशलता थी।
कुशलता होना अच्छा है, जरूरी है। उत्साह होना अच्छा है, जरूरी है।

चपलता तत्परता होना अच्छा है, जरूरी है लेकिन तत्परता कौन-से कार्य में हैं ? ईश्वरीय दैवी कार्य में तत्परता है कि झूठ कपट करके बंगले पर बंगला बनाकर विलासी होने में तत्परता है ?

बड़ा पद पाकर लोगों का शोषण करने की तत्परता है कि लोगों के हृदय में छुपे हुए लोकेश्वर को जगाकर भगवान के मार्ग में सहायरूप होने की, मुक्त होने की अथवा मुक्ति के मार्ग में जाने वालों की सेवा, सहयोग में तत्परता है ? यह
देखना पड़ेगा।

अपने को बचाने में तत्परता है कि अपने को सुधारने में तत्परता है ? अपना बचाव पेश करने में तत्परता है कि दोष खोजने में तत्परता है ?

अपने को निर्दोष साबित करने में तत्परता है कि वास्तव में निर्दोष होने में तत्परता है ? अपने को आलसी, प्रमादी बनाने में बुद्धि लग रही है कि अपने को उत्साही और सदाचारी बनाने में लग रही हैं ?

"अपना साखी आप है निज मन माँही विचार।
नारायण जो खोट है वाँ को तुरन्त निकाल।।"

रोज सुबह ऐसी खोट को निकालते जाओ..... निकालते
जाओ.....। चन्द दिनों में तुम्हारा जीवन विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न होगा। तुममें दैवी गुण विकसित होने लगेंगे।

युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण ने अपने प्यारे अर्जुन से कहाः
निर्भय रहना।

राक्षस निर्भय रहते हैं तो दुराचार करते हैं। सज्जन निर्भय रहते हैं तो सदाचार करते हैं। भगवान ने केवल निर्भय होने को नहीं कहा।

अभयं सत्त्वसंशुद्धिः।

निर्भयता कैसी ? सात्त्विक निर्भयता।

आत्मज्ञान में व्यवस्थित हो। अपने पास विद्या है तो विद्या का दान दो। धन है तो दूसरों के हित में लगाओ। भगवान को पाने वालों के लिए, भक्ति ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए खर्चो। शरीर से कभी व्रत करो, कभी सेवा करो, कभी उपवास रखो। स्वाध्याय करो।

आत्मज्ञान के शास्त्रों का अध्ययन करो, विचार करो। जैसे शरीर को रोटी, पानी और स्नान की आवश्यकता है ऐसे ही तुम्हारे अन्तःकरण को सत्संग, जप और ध्यान की आवश्यकता है।

स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिए। हररोज सत्शास्त्रों
का सेवन अवश्य करना चाहिए।

हररोज निरीक्षण करो कि हमसे क्या-क्या अच्छे काम होते हैं और उसमें क्या-क्या कमी है। अच्छा कितना हुआ यह भूल जाओ और कमी क्या रह गई यह खोज लो।

                     ।।जय श्री राम ।।

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