भक्त किशन सिंह जी
परंतु ईश्वर ने इनको झुठा कर दिया है, इसमें इनका कुछ भी अपराध नही है'
आगे
एक बार ठाकुर साहेब किसी यात्रामें महाराजा साहेब के साथ जा रहे थे।
राह में पूजा का समय होजाने पर ठाकुर साहेब कपड़ा ओढ़कर घोड़े पर ही भगवान् की मानसिक पुजा करने लगे।
पूजा में आप भगवान् को दही का भोग लगाने की तैयारी कर रहे थे, इसी बीच महाराजा साहेब की दृष्टि उधर पड़ गयी।
महाराजा साहेब ने दो तीन बार पुकारकर कहा, 'किशनसिंह ! नींद ले रहे हो क्या?'
ठाकुर साहेब पूजामें मग्न थे । उनको महाराजा साहेब का पुकारना सुनायी ही नहीं पड़ा इससे महाराजने रुष्ट होकर अपने घोड़े को उनके घोड़े के पास लेजाकर उनका कपड़ा खीँचकर दूर कर दिया।
फिर महाराजा साहेब ने उधर दृष्टि डाली तो उन्हे बड़ा ही आश्चर्य हुआ ; क्योंकि घोड़ा और काठी सब पर दही ही दही फैला हुआ था। उन्होने ठाकुर साहेब से पुछा ' किशनसिंह ! यह क्या है?
कुछ समय तो ठाकुर साहेब चुप रहे, परंतु महाराजा साहेब के अधिक आग्रह करने पर उन्होने स्पष्ट बता दिया कि ' महाराज ! मैं मानसिक पूजन में भगवान् को दही का भोग लगा रहा था , पर आपके वस्त्र खींचने से मैं चौंक उठा । अकस्मात् हिल जाने से मेरा मानस दही गिर गया।
वही दही भगवान् की लीला से प्रत्यक्ष हो गया मालूम होता है'
यह सुनकर महाराजा साहेब ने गदगद् होकर उनसे कह दिया - 'आप घर जायँ और भगवान का भजन करें'
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