प्रश्न-परहित का भाव होने में बाधा क्या है ?
उत्तर-व्यक्तिगत स्वार्थ ही बाधक है । वास्तव में व्यक्तिगत स्वार्थ का भाव रखने से स्वार्थ सिद्ध नहीं होता, पर सबके हित का भाव रखने से ( व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़ने से ) व्यक्तिगत स्वार्थ भी सिद्ध हो जाता है ! सबके हित का भाव रखनेवाले की सेवा पशु भी करते हैं ।
प्रश्न-भजन-ध्यान आदि साधन सबके हित के लिये करने चाहिये-यह बात यदि सत्य है तो यह मानना पड़ेगा कि अभीतक किसी का साधन सिद्ध नहीं हुआ; क्योंकि अभीतक सबका हित नहीं हुआ ?
उत्तर-इसमें सबके हित का तात्पर्य नहीं है, प्रत्युत अपने स्वार्थ के त्याग का तात्पर्य है । सबके हित की बात तो दूर रही, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का भी हित ( कल्याण ) नहीं कर सकता, पर अपने स्वार्थ का त्याग कर सकता है । सबके हित का भाव साधन है, साध्य नहीं ।
प्रश्न-अपना हित न सोचकर दूसरे का हित क्यों सोचें ?
उत्तर-हमारा हित हो-यह स्वार्थवृत्ति ही हमारे हित में बाधक है । जितना दूसरे के हित के लिये करेंगे, उतना ही अपना स्वार्थ मिटेगा । जितना स्वार्थ मिटेगा, उतना हमारा हित होगा ।
प्रश्न-दुःखी व्यक्ति को देखकर दुःख होगा तो उससे सम्बन्ध जुड़ जायगा, फिर बन्धन कैसे छूटेगा ?
उत्तर-यह सम्बन्ध बाँधनेवाला नहीं है । दुःखी को देखकर दुःख होता है तो इससे सिद्ध हुआ कि उसके अधिकारवाली कोई वस्तु हमारे पास है । वह वस्तु उसकी सेवा में लगा दो ।
'प्रश्नोत्तरमणिमाला' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 1175, विषय- परहित, पृष्ठ-संख्या- ५१, गीताप्रेस गोरखपुर
ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज
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