मन्दिर श्रीश्रीराधाविनोदजी जमाई-ठाकुर
श्रीजमाई-ठाकुर व तराश वालेh मन्दिर नाम से
प्रसिद्ध श्रीश्रीराधाविन
ोदजी का अति सुन्दर मन्दिर मथुरा रोड पर
अवस्थित है।
तरास स्टेट में नवग्राम के अधिकारी थे परम भक्त
श्रीवांछाराम जी। वे नियम से
निकटवर्ती कारतीया नदी में स्नान करने जाते।
एक दिन स्नान करते समय उन्हें एक मधुर आवाज़
सुनायी पड़ी-''मुझे जल से निकाल घर ले चलो।''
वांछाराम जी ने चकित होकर इधर उधर देखने लगे,
कि इतने में कोई वस्तु जल में उनके पाँवों से आ
टकरायी। हाथ डालकर जब वांछाराम जी ने उसे
बाहर निकाला तो वे निकले भक्तवांछा कल्पतरु
श्रीविनोद ठाकुर। उस अद्भुत श्रीविग्रह
को ह्रदय से लगाकर वे अपने घर ले आये।
श्रीविनोद ठाकुर जी अतिशय सुंदर, रंगीले, नव
विनोदी थे। रोज़ स्वप्नादेश देकर
कभी नयी पोशाक, कभी नये नये आभूषण, इतर-फुलेल
माँगते रहते।
श्रीवांछाराम जी इनकी वस्तुओं
को जितनी अपने से बन पड़ता, पूर्ण करते। वरना दूसरे
लोगों से माँग-मूँगकर भी ठाकुर
जी को राज़ी करते।
व्रज में किसी वृद्धा गोप को ठाकुरजी ने
हुक्का पीते देखा,सो उस शौक़ को पूरा करने के
लिये श्रीविनोद जी ने एक धनी को स्वप्न
दिया। वह एक चाँदी से मढ़ा निगालीदार सुन्दर
फ़ारसी हुक्का-चिलम, एवम् कुछ सुगन्धित तम्बाकू
लेकर भक्त वांछाराम के पास पहुँचा। उसे देखकर
भक्त जी चौंक पड़े- अरे सेठजी! मन्दिर और ठाकुर
सेवा में हुक्के का क्या काम? तब सेठजी ने सब बात
कब सुनाई।
राज-भोग के बाद श्रीवांछाराम जी चिलम
भरकर हुक्का सामने रख देते। पर्दा डालकर दूर बैठ
जाते। किसी किसी दिन तो उन्हें हुक्के
की गुड़गुड़ाहट भी सुनाई पड़ने लगी।
एक दिन श्रीविनोद
ठाकुरजी की सरसों का साग खाने
की इच्छा हुई। किसी खेत में जाकर ले आये तोड़कर
और पीताम्बर में बाँधकर रख दिया रसोई में। रात
को भक्त से कही अपने मन की बात।
श्रीवांछाराम सोचने लगा कि -
कहाँ मिलेगा और कहाँ जाकर लाऊँ मैं
सरसों का साग। प्रातःकाल जब भक्तजी मन्दिर
में घुसे तो पीताम्बर में सरसों का साग
रखा पाया। जान गये सब लीला श्रीरंगीले
ठाकुर की।
श्रीवांछाराम जी घर आये सब
अतिथियों का बहुत अच्छे से सेवा-सत्कार करते।
एक दिन जब वे सो रहे थे तब तीन-चार
अतिथि आकर इनके घर का दरवाज़ा खटखटाया।
श्रीविनोद ठाकुर ने बालक रूप में उन्हें
दरवाज़ा खोला और भोजन के लिये बिठाया।
घर में भोजन की पर्याप्त सामग्री न देखकर
उसी समय बनिये के पास अपना एक
कड़ा गिरवी रखकर सामान ले आये। स्वयं भोजन
तैयार कर उन अतिथियों की सेवा की। उन्हें
विश्राम करने को एक कमरा खोल दिया। सबेरे जब
श्रीवांछाराम जी ने उन्हें देखा तो चकित रह गये।
बनिया कड़ा लेकर पैसे लेने पहुँचां तब सारा राजं
खुला। इस रंगीले ठाकुर के रोज ऐसे आलौकिक
चित्र देखकर श्रीभक्तजी मुग्ध रह जाते।
अपनी आलौकिक लीलाएँ करते करते अब रसिक
चूड़ामणि को अपना अकेलापन खलने लगा। किन्तु
जीवनसाथी उनके ध्यान में थे जिनके लिये उन्होंने
एक व्यक्ति को श्रीवनमाली रायबहादुर के पास
भेजा। उन्होंने रायबहादुर जी को श्रीवांछाराम
जी और उनके श्रीठाकुर जी के बारे में बताया। तब
रायबहादुर जी अपनी पत्नी और १०-११ वर्ष
की पुत्री राधा को लेकर श्रीवांछाराम जी के
घर पहुँचे।
श्रीविनोद ठाकुर जी के दर्शन कर वे अति-
आनंदित हुए। राजकुमारी ने अपने माता-
पिता का बार बार ध्यान उधर दिलाया-''
देखो तो,ठाकुर मुझे देखकर कैसे हँस रहे हैं?''
किन्तु किसी ने ध्यान न दिया।
मनमोहन सुखसदन वदन को एक बार जिन हँसते देखा।
वाको मन तजिकै सुख त्रिभुवन वन कुंजन में धँसते
देखा।।
राजबहादुर जी राधाजी को लेकर दो चार बार
फिर श्रीविनोदजी के दर्शन करने गये। अब तो उनके
मन में भी विनोद-ठाकुर की रूपमाधुरी घर करने
लगी। एक दिन राजकुमारी श्रीवांछाराम जी के
सामने अपने पिताजी से बोलीं- पिताजी!
श्रीविनोदजी को अपने घर ले चलो न, मैं
इनकी प्रेम से सेवा करूँगी, इन्हें सुन्दर-सुन्दर वेष-
भूषा से सजाऊँगी।''
रात को वांछाराम जी को स्वप्नादेश होता है-
''मुझे अब वनमाली राय के घर जाने दो।
तुम्हारी सेवा से मैं अति प्रसन्न हूँ, तुम दुख मत
मानो। तुम मेरे ही पास आ जाओगे।''
श्रीवनमाली राय के घर हाथी पर बैठकर गाजे-
बाजे के साथ महासमारोह पुरस्कार श्रीविनोद
जी आ पहंँचे।
अब तो राजकुमारी राधा ठाकुर
जी की सेवा बड़े आनंद से करने लगीं- सेवा का भार
चाहे पुजारी जी पर था परन्तु कैसा वागा आज
धारण होगा? कैसा श्रंगार हो, क्या रसोई भोग
लगेगी-यह सब व्यवस्था राजकुमारी जी के हाथ में
थी।
बस अब तो ठाकुरजी उनसे छेड़छाड़ करने पर उतर
आये। एक दिन उनका आँचल पकड़ कर बोले- 'राधे! तू
मेरे साथ विवाह करले।' राजकुमारी सकुचा गई।
उन्होंने अपनी माँ से कहा परन्तु उन्होंने विश्वास
नहीं किया।
में परमात्मा का हूँ परमात्मा मेरे हैl
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