श्रीमहाप्रभु वल्लभाचार्यजी के शिष्य और अष्टछाप के कवि श्रीपरमानंददासजी ने एक पद में गोपी की बहुत सुन्दर परिभाषा की है–
गोपी प्रेम की ध्वजा।
जिन गोपाल किए अपने वस उर धरि स्याम भुजा।। अर्थात् प्रेमरसमयी भक्ति की प्रवर्तिका गोपियां ही हैं। श्रीकृष्णदर्शन की लालसा ही गोपी है। गोपी कोई स्त्री नहीं है, गोपी कोई पुरुष नहीं है। श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है। कल्पों तक कठोर तपस्या करके वरदान से प्राप्त गोपी शरीर वाली श्रुतियां, स्वयं ब्रह्मविद्या, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि जो स्व-सुख से रहित पूर्णत्यागमय और अपने परम मधुर प्रेम के द्वारा अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को सुख पहुंचाने के लिए वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, गोपी बनकर व्रज में आए। गोपियां श्रुतियां हैं, इडा-पिंगला आदि नाड़ियां हैं, चित्तवृत्तियां हैं। ’गोपायन्ति श्रीकृष्णम्’–ये श्रीकृष्ण का गोपन करती हैं, चोर-चोर, जार-जार कहकर उनको छिपाती हैं, इसलिए गोपी हैं। ‘गोभि: पिबन्ति’–ये इन्द्रियों द्वारा श्रीकृष्ण-रस का पान करती हैं, इसलिए भी इनको गोपी कहते हैं। अन्य लोग तो ‘नेति नेति’ द्वारा निषेध करके इस रस से वंचित हो जाते हैं, परन्तु गोपियां अपनी इन्द्रियों से ही श्रीकृष्ण-रस का पान करती हैं। भक्ति अलौकिक दिव्य-रस है। जो आँख से भक्ति करे, कान से भक्ति करे, मन से भक्ति करे, जीभ से भक्ति करे, जो अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को भक्तिरस में डुबो दे, उसे गोपी कहते हैं। जब प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति फूटती है, तब देहाभिमान छूटता है। वासना का विनाश होकर प्रेममार्ग में प्रवेश मिलता है। कुछ संतों ने कहा है जिसके शरीर में कृष्ण का स्वरूप गुप्त है, जिसके हृदय में श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ भी नहीं है, उसे गोपी कहते हैं। गोपी ने मन से सर्वस्व त्याग कर दिया है और मन में परमात्मा का स्वरूप स्थिर कर लिया है। गोपियों का शरीर भगवान का सतत् ध्यान करने से भगवान जैसा दिव्य बन गया है। पद्मपुराण में गोपियों के सम्बन्ध में कहा गया है–’गोपियों को श्रुतियाँ, ऋषियों का अवतार, देवकन्या और गोपकन्या जानना चाहिए। वे मनुष्य कभी नहीं हैं।’ इन गोपियों में कुछ तो ‘नित्यसिद्धा’ हैं जो अनादिकाल से भगवान श्रीकृष्ण के साथ दिव्य-लीला विलास करती हैं। कुछ पूर्वजन्म में श्रुतियां हैं जो ‘श्रुतिपूर्वा’ कहलाती हैं। कुछ दण्डकारण्य के सिद्ध ऋषि हैं जो ‘ऋषिपूर्वा’ के नाम से जानी जाती हैं और कुछ स्वर्ग में रहने वाली देवकन्याएं हैं जो ‘देवीपूर्वा’ कहलाती हैं। इसके अतिरिक्त भगवान के रामावतार में उन्हें देखकर मुग्ध होने वाले दण्डकवन के ऋषि-मुनि, जो भगवान का आलिंगन करना चाहते थे–को भगवान ने गोपी होकर उन्हें प्राप्त करने का वर दिया था, वे भी व्रज में गोपी हुए। इसके अतिरिक्त मिथिला की गोपी, कोसल की गोपी, अयोध्या की गोपी, श्वेतद्वीप की गोपी आदि गोपियों के अनेक यूथ थे जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान से वर पाकर गोपीरूप में अवतीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त किया था।
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