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श्रीकृष्ण की भक्ति

चैतन्य महाप्रभु अपने शिष्यों के साथ कही जा रहे
थे. उन्होंने
एक गांव में देखा कि कुछ लोग एक स्थान पर बैठे हैं
और युवक गीता के श्लोक उन्हें सुना रहा है और
स्वयं रो रहा है.
.
उस व्यक्ति के संस्कृत के उच्चारण से चैतन्य महाप्रभु
को यह
आभास हो गया कि इस व्यक्ति को संस्कृत का
ज्ञान नहीं है
लेकिन उन्हें आश्चर्य हुआ कि फिर भी वह बांच
रहा है और रो रहा है.
.
चैतन्य उसके पास पहुंचे और पूछा- युवक क्या तुम
जो बांच
रहे हो उसका अर्थ भी जानते हो? रोने के कारण
युवक की
आंखें भरी हुई थीं. उसने मुश्किल से आंसू रोकते हुए
कहा- नहीं प्रभु मुझे इसका अर्थ नहीं ज्ञात है.
.
चैतन्य महाप्रभु का आश्चर्य और बढ़ गया. उन्होंने
पूछा- यदि
तुम इसका अर्थ नहीं समझते हो तो फिर इस तरह से
रोने का
क्या कारण है?
.
युवक ने उत्तर दिया- प्रभु मैं तो अज्ञानी हूं
लेकिन मैं तो
यह सोचता हूं जब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को
कुरुक्षेत्र में
उपदेश दे रहे हैं तो मुझे और कुछ समझ में नहीं आता.
प्रभु
का उपदेश है यही सोचकर मैं भाव विभोर हो
जाता हूं और
आंसू निकल आते हैं.
.
महाप्रभु उसकी बात सुनकर भाव विभोर हो गए
और उसे
गले से लगाकर शिष्यों से बोले- गीता का
यथार्थ तो बस
व्यक्ति ने समझा है, बाकी तो सब इसे सुन रहे हैं.
बुद्धि बेशक बहुत उपयोगी है, सबसे भरोसेमंद
साथी लेकिन
प्रभु को पाने के लिए बुद्धि से अधिक समर्पण का
महत्व है.
भक्ति के आगे भावनात्मक बुद्धिमता तो पीछे
ही छूट जाती है. .

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